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शुक्रवार, 9 जून 2023

शिक्षा: निजी स्कूलों का मुकाबला नहीं कर पा रहे सरकारी स्कूल, सरकारी स्कूलों की व्यवस्था में सुधार से ही बदलेंगे हालात



 शिक्षा: निजी स्कूलों का मुकाबला नहीं कर पा रहे सरकारी स्कूल, सरकारी स्कूलों की व्यवस्था में सुधार से ही बदलेंगे हालात

नवोदय और केंद्रीय विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे प्रसिद्ध निजी स्कूलों की तुलना में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन, दूसरी तरफ राज्यों में सरकारी स्कूलों की स्थिति अच्छी नहीं है। इसका कारण सरकारी स्कूलों में अच्छी पढ़ाई नहीं होना तो है ही, साथ ही कई सामाजिक, व्यावहारिक और व्यवस्था से जुड़े कारण भी हैं। ज्यादातर निजी स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है। वहां साफ-सफाई, चमकदार ड्रेस, स्वच्छ शौचालय और परिवहन आदि की व्यवस्था होती है। दूसरी तरफ सरकारी स्कूल भवन बदहाल हैं। कई स्कूल भवन तो जर्जर हैं, तो आज भी हजारों सरकारी स्कूल किराए के भवन में चल रहे हैं। कई सरकारी स्कूलों में शौचालय जैसी सामान्य व्यवस्था तक नहीं है, अगर शौचालय हैं, तो उनकी सफाई नहीं होती। 37 फीसदी स्कूलों में पेयजल की व्यवस्था नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह आंकड़ा अधिक है।


देश में करीब 15 लाख सरकारी प्राइमरी स्कूल हैं, जो कुल प्राइमरी स्कूलों का 85 फीसदी से अधिक हैं। इनमें करीब 77 लाख शिक्षक पढ़ाते हैं। हाल ही संसद में एक सवाल के जवाब में कहा गया था कि देश में लाखों स्कूल ऐसे हैं, जहां केवल एक ही शिक्षक है। नेशनल सैंपल सर्वे संगठन के अनुसार दो तिहाई शिक्षकों को प्रशिक्षण की जरूरत है। वर्ल्ड एजुकेशन रैंकिंग में भारत का नंबर 164 देशों में 116वें नंबर पर है, जबकि श्रीलंका 58वें और न्यूजीलैंड पहले स्थान पर है। अभिभावकों को कई तरह की समस्याओं से जूझना पड़ता है। वे ऐसा स्कूल चाहते हैं, जहां बच्चों को अच्छी शिक्षा तो मिले ही, मूलभूत सुविधाएं भी सुलभ हों।


 आजकल अभिभावकों के पास समय की कमी है, वे चाह कर भी हर रोज बच्चों को स्कूल ले जाने और वापस लाने का काम नहीं कर पाते। इसलिए बच्चे के लिए स्कूल वाहन की व्यवस्था करना उनकी मजबूरी है। इसलिए बच्चे के लिए सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था आवश्यक हो गई है। एकल परिवार हैं और पति-पत्नी दोनों ही काम कर रहे हैं, तो छोटे बच्चों को क्रेच में रखना मजबूरी है। सरकारी स्कूलों में क्रैच नहीं है। निजी स्कूलों में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं। आजकल तो मुहावरे भी बदल गए हैं अब तो कहा जाता है...‘खेलोगे, कूदोगे तो होंगे नवाब’। इसलिए स्कूलों में खेल गतिविधियां भी जरूरी हैं। अभिभावक चाहते हैं कि बच्चे रचनात्मक कार्यक्रमों से जुड़ें। अभिभावक बच्चों की पाठॺेत्तर गतिविधियों से जुड़ी फोटो और वीडियो सोशल मीडिया में टैग, शेयर या पोस्ट भी करते हैं। इससे बच्चा उत्साहित होता है । ज्यादातर सरकारी स्कूल इस तरह की गतिविधियों से दूर हैं।


पहले परिवार में कई बच्चे होते थे। अब एक या दो ही होते हैं, तो सुरक्षा का भाव पहले आता है। सरकारी स्कूलों में तुलनात्मक सुरक्षा की व्यवस्था कम होती है। अभिभावक की जिम्मेदारी यहां बढ़ जाती है। एकल परिवार में अभिभावक चाहकर भी बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दे पाते। ऐसे में अभिभावक भी चाहते हैं कि उनके बच्चे का दाखिला ऐसे स्कूल में हो जहां बच्चे पर खास ध्यान दिया जाए और उसे अनुशासन में रहना सिखाया जाए। साथ ही उसमें नैतिक गुणों का विकास किया जाए। भारत सरकार के 2022 के आंकड़े बताते हैं कि देश में 1.2 लाख स्कूल ऐसे हैं जो केवल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। 


राइट टू एजुकेशन के मानक के अनुसार शिक्षक और छात्रों का अनुपात 26:1 होना चाहिए। लेकिन हालिया आंकड़ों की बात करें तो बिहार में 60 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक और दिल्ली में 40 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक है। ऐसे में सरकारी स्कूल में हर बच्चे पर खास ध्यान देना संभव नहीं है। एक शैक्षणिक संगठन की ओर से हुए एक सर्वे में देखा गया था कि अभिभावक जब भी बच्चे का प्राइमरी स्कूल में दाखिला कराने जाते हैं तो वे देखते हैं कि वहां अंग्रेजी में पढ़ाई होती है या नहीं? साथ ही वेे अनुशासन, स्कूल का इंफ्रास्ट्रक्टर, सुरक्षा व्यवस्था, शिक्षकों के चरित्र और शिक्षक प्रशिक्षण आदि के बारे में भी जानकारी करते हैं। जाहिर है सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की संख्या के साथ स्कूल भवन और सामान्य सुविधाओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

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